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नीलवर्ण ग्रह - नेपच्यून (वरुण) अपनी वलय-प्रणाली के साथ (कंप्यूटर जनित चित्र) |
सौरमंडल के प्रारंभिक सभी ग्रहों को हमारे जिज्ञासु और मेधावी पूर्वज प्राचीन काल से ही पहचानते आये हैं. यूरेनस (अरुण) को भी वे देख सके थे भले ही उसे दूर स्थित कोई तारा समझ बैठे थे. परन्तु अत्यंत दूर स्थित नेपच्यून (यह हमारी पृथ्वी की तुलना में सूर्य से तीस गुना ज्यादा दूर स्थित है) का पता न तो वे नग्न आखों से लगा सके, न उस वक़्त उपलब्ध दूरबीन से. तो आखिर नेपच्यून की खोज कैसे हुयी?
नेपच्यून वह पहला ग्रह बना जिसके अस्तित्व यानि होने की भविष्यवाणी उसे देखने के पहले ही गणनाओं के माध्यम से कर दी गयी थी. हुआ यूँ कि नए-नए खोजे गए यूरेनस के बारे में ज्यादा-से-ज्यादा जानने को उत्सुक खगोल-शास्त्री उसपर नजर गड़ाये बैठे ही रहते थे, और इसी के दौरान पता चला कि यूरेनस अपने परिक्रमा कक्ष में चलते हुए कुछ विचलित हो जाता है याने इसके सामान्य परिक्रमा पथ में परिवर्तन हो जाता है – कुछ यूं समझिये कि चलते-चलते थोड़े समय के लिए रास्ते से थोड़ा हट जाता है. इस विचलन के कारण के बारे में सबसे पहले अलेक्सिस बोवार्ड (Alexis Bouvard) ने किसी दूसरे ग्रह की उपस्थिति की सम्भावना व्यक्त की – जिसका गुरुत्वीय प्रभाव इस गड़बड़ी का कारण हो सकता था. बाद में जोहान गेले (Johann Galle) ने 23 सितम्बर 1846 को शातिशाली दूरबीन से इसकी खोज उसी स्थान पर की जिस स्थान पर ग्रह के होने की सम्भावना वेरियर (Verrier) ने प्रदर्शित की थी. इसके सबसे बड़े चाँद ट्राइटन (Triton) को भी जल्द ही खोज लिया गया था परन्तु बाकी के चंद्रमों की जानकारी बहुत बाद में ही हो पायी जब शक्तिशाली दूरबीनों और अन्तरिक्ष अभियानों ने हमारे खोजों की गति को आगे बढ़ाया.
नेपच्यून (Neptune) या हमारा वरुण, सौरमंडल के केंद्र सूर्य से दूरी के क्रम में आँठवा तथा अंतिम मुख्य ग्रह है. अपने आकार में यह बाह्य गैसीय दानव ग्रह सौरमंडल में चौथा स्थान रखता है. नेपच्यून का नाम समुद्र के रोमन देवता के सम्मान में रखा गया था. भारतीय अन्तरिक्ष वैज्ञानिकों ने भी उसी क्रम में इसका नामकरण जल के देवता ‘वरुण’ के नाम पर किया.
सूर्य से इसकी दूरी पृथ्वी से सूर्य की दूरी से पूरे तीस गुना ज्यादा है. सूर्य से पृथ्वी के मध्य की दूरी को एक खगोलीय इकाई (Astrological Unit) माना जाता है तो इस दृष्टि से यह सूर्य से 30.1 खगोलीय इकाई (AU) के बराबर है या लगभग 4.50 अरब किलोमीटर. इतनी दूर स्थित होने के कारण इसे सूर्य की एक परिक्रमा करने में लगभग 164.79 पृथ्वी वर्ष लगते हैं मतलब हमारे औसत जीवन में यह आधा चक्कर भी अपने तारे का नहीं लगा पाता. या यूं कहें कि अगर हम इस ग्रह पर जन्में होते तो अपना पहला जन्मदिवस भी नहीं मना पाते – मतलब न केक, न चॉकलेट, न उपहार – बड़ा दुखद होता. नहीं!!!
अरे हाँ, एक बात और, सूर्य से इतनी दूरी की वजह से यह जगह बेहद ठंडी है इतनी ठंडी की यहाँ बादलों में तापमान (-) 218 डिग्री सेल्सियस तक चला जाता है (जरा सोचिये 0 डिग्री सेल्सियस में तो बर्फ जम जाती है, उससे भी 218 कम). वहीं कोर का तापमान होता है 5100 डिग्री सेल्सियस. अब इस अंतर के बारे में आप कल्पना कीजिये.
नेपच्यून या वरुण, की बनावट अपने पड़ोसी ग्रह यूरेनस या अरुण से बहुत मिलती-जुलती है. यूरेनस की तरह ही इसके वातावरण में पानी की बर्फ के अलावा जमी हुयी अमोनिया और मीथेन गैसों की बर्फ प्रचुर मात्रा में है. इसलिए इसे भी यूरेनस की तरह ‘बर्फीला गैस दानव’ कहकर सम्बोधित किया जाता है. इसका वायुमंडल हाइड्रोजन, हीलियम और हाइड्रो-कार्बन से बना है. नेपच्यून की तस्वीरों में बादल, तूफ़ान और मौसम का बदलाव स्पष्ट तौर पर नजर आता है, इसका एक कारण यह भी है कि इस ग्रह पर चलने वाली तूफ़ान हवाएं सौरमंडल के किसी भी अन्य ग्रह की तुलना में काफी तेज रफ़्तार से चलती हैं. बृहस्पति पर चलने वाले तूफ़ान से बने ‘ग्रेट रेड स्पॉट’ की तरह ही नेपच्यून पर वायेजर को एक ‘बड़ा गाढ़ा धब्बा’ नजर आया था जब 1989 में वह इस ग्रह के पास से गुजरा था. नील वर्ण से सुशोभित यह ग्रह मीथेन की प्रचुरता के कारण यह रंग धारण करता है (पृथ्वी का नीला रंग जीवन-दायक जल की वजह से होता है, ऐसे ही बता दिया )
एक बात और – ग्रह के पास बहुत ही विरल वलय-प्रणाली पायी गयी है जो मुख्यतः बर्फ से बनी हैं और सिलिकेट या कार्बन के यौगिकों से निर्मित है. यह वलय प्रणाली रक्त-वर्ण आभा से युक्त है.
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नेपच्यून का सबसे बड़ा चाँद - ट्राइटन (Triton) |
अंत में बात करते हैं – इसके उपग्रहों की. नेपच्यून बाह्य ग्रहों में या गैसीय दानवों में इस मामले में सबसे गरीब है जिसके पास केवल 14 उपग्रह हैं. यूरेनस (अरुण) के पास लगभग दोगुने 27 उपग्रह हैं. शनि और बृहस्पति से तो कोई मुकाबला ही नहीं है. इसका सबसे बड़ा उपग्रह है ट्राइटन (Triton) – इतना विशाल और भारी की नेपच्यून की कक्षा में स्थित समस्त द्रव्यमान का 99.5% अकेले ट्राइटन पूर्ण करता है. मतलब बाकी मिलाकर केवल 0.5% द्रव्यमान रखते है. अब इसी बारे में एक शानदार बात भी है कि यह बाकी उपग्रहों की तुलना में विपरीत दिशा में घूमता है और शायद नेपच्यून के निर्माण के समय बना उसका उपग्रह न होकर कोई क्षुद्र ग्रह हो जो नेपच्यून के गुरुर्वाकर्षण में फंस गया हो. बेचारा. इसकी खोज ग्रह की खोज के केवल 17 दिन बाद ही विलियम लासेल (William Lassell) के द्वारा की गयी थी.
दूसरा उपग्रह या चाँद था नेरेइड (Nereid). इसके बाद वायेजर ने इसके 6 और उपग्रह खोज निकाले. अगले सारे उपग्रह इसी शताब्दी में खोजे गए. सबसे नया उपग्रह 2013 में खोजा गया. नेपच्यून के उपग्रहों के नामों की खास बात है कि जहाँ ग्रह का नाम रोमन समुद्र देवता पर रखा गया है – वहीँ उपग्रहों के नाम भी समुद्र के अन्य देवताओं पर रखे गए हैं.
नेपच्यून के पास अभी तक केवल वायेजर -2 ही पहुँच सका है (हैं न वायेजर श्रृंखला अद्भुत- ये आज भी काम कर रहे हैं, आपको पता). भविष्य में इस दिशा में शायद प्रयास हो और इस ग्रह और इसके उपग्रहों के बारे में हम ज्यादा से ज्यादा जान सके क्योंकि धरती के प्रेक्षणों से इतनी दूर स्थिति पिंडों की जानकारी असंभव है. तो बस इन्तजार है समुद्र के देवता के गर्त में छिपे रहस्यों से पर्दा उठने का...
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